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Thursday, October 2, 2008

"आतताई"(कहानी)

आज चौधरी के पास सब कुछ था । जमीन, जायदाद और रुतबा । न जाने कितने बरस उसने संघर्ष किया था इस मुकाम पर पहुँचने के लिये । उसकी मेहनत आखिरकार रंग लाई और इसी बरस वह गाँव का सरपँच भी चुन लिया गया था । वो भी एक प्रतिष्ठित प्रतिद्वंदी को हरा कर । परन्तु इतना सब कुछ होने के बाद भी उसकी आँखों में वो खुशी नहीं थी जो होनी चाहिये थी । इसका सबब सभी जानते थे, लेकिन मुँह से न तो चौधरी कुछ कहता था और न ही इस बारे में किसी को कुछ कहने की इज़ाजत थी । औलाद की कमी हालाँकि उसे खूब खटकती थी लेकिन वह अपनी उदासी को रानो के ऊपर जाहिर नहीं होने देता था । वह जानता था कि यदि उसने भूले से भी कह दिया तो रानो के दिल पर क्या गुजरे गी । यह बात उसके दुख को चौगुना कर देगी, जो उसे कत्तई बर्दाशत नहीं था - रानो से प्यार जो इतना करता था वो ।
जब उसका दुनिया में नहीं रह गया था तो रानो ही उसका सहारा थी । हिन्दुस्तान का बंटवारा हुआ तो उसे वहाँ से सब कुछ छोड़-छाड़ कर भागना पड़ा था । माँ-बाप तो आतताईयों के शिकार हो गये । उनके गाँव में जो भी आठ-दस हिन्दुओं के घर थे, उन्हे घेर कर रात को आग लगा दी गई थी । माँ-बाप तो बूढ़ी हडिडयों के कारण निकल नहीं पाये, वह अपनी लाडली बहन लाजो को किसी तरह ले कर भाग निकला । आतताईयों को जब पता लगा तो उन्होने दूर तक उनका पीछा किया । रास्ते में जिस तरह उसे अपनी बहन को खोना पड़ा, सोच कर आज भी उसकी रूह काँप उठती है । बस दिल को तसल्ली दे लेता था कि ऊपर वाले को ग़र यूँ ही मंजूर था तो यूँ ही सही । कई बात उसके दिल में टीस सी उठती थी कि यदि आज लाजो होती तो उसके बच्चों से ही मन की हसरत पूरी कर लेता । परन्तु, न जाने उसे कौन सी सजा मिल रही थी । माँ-बाप खोये, बहन खोई और अब आगे कोई वारिस भी नही है । कौन देखभाल करेगा उसकी जायदाद की। यूँ ही सोचते-सोचते उसकी आँखें भर आया करती थीं ।
"पुत्तर ! पिछले जन्मा दे करम वी होंदे ने । कोई दान-पुण कर । रब सुनेगा ।" बेबे ने कई बार उसे टोका थ । लेकिन वह इन चोजों को नही मानता था । वह स्वयँ को एक कर्मयोगी मानता था । आज तक उसने जो कुछ भी पाया था, वह अपनी मेहनत और लगन के बल पर था । हाँ, वह नास्तिक नहीं था । प्रभु में पूरी आस्था रखता था और उसे भरोसा था कि वह उसके मन की मुराद अवश्य पूरी करेगा ।
शादी के पन्द्रह साल गुजर चुके थे । रानो ने भी कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया था कि औलाद की कमी उसको खलती थी । गाँव के बच्चों को लाड-प्यार करके अपना मन बहला लेती थी । लगता थ जैसे उसने इसे अपनी नियति मान कर परिस्थितियों से समझौता कर लिया थ । लेकिन, मन का भरोसा नहीं, कब धीरज खो बैठे या मचल उठे ।
उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ कि बात रानो के दिल को चीर सी गई । यूँ बेबे की बहु को आये लगभग तीन साल हो चुके थे, परन्तु उसके पाँव अभी हाल ही में भारी हुए थे । जैसी सलाह वह चौधरी को देती थी, उस पर खुद भी अमल करती थी । जब साल गुजरते-गुजरते उसकी बहु उम्मीद से न हुई थी तो उसने साधु-सन्यासियों के यहाँ चक्कर लगाने शुरू कर दिय और उनके कहे अनुसार तरह-तरह के दान-पुण्य के उपाय करने लगी । अब इसी दान-पुण्य का फल था या प्रभु की कृपा थी कि शादी को तीन साल होते-होते उसकी बहु के पाँव भारी हो गये ।
रानो को पता चला तो वह भागी-भागी वहाँ पहुँची और लगी उलाहना देने -
"बधाई हो बेबे ! इतनी बड़ी खुशखबरी और तूने हमें बताई ही नहीं ।"
बेबे ने अपनी बहु को, जो आँगन में बैठी साग काट रही थी, को अन्दर जाने का इशारा किया और थोड़ी रुखाई से बोली -
"क्या बताऊँ रानो ! स्वामी जी ने कहा था कि बड़ी मुश्किल से प्रभु ने मुराद पूरी की है । इसलिये इस पर कोई गल्त परछावाँ नहीं पड़ना चाहिये ।"
रानो समझ गई वह क्या कह रही थी । वह खुद जो बेऔलाद थी, इसलिये वहाँ उसका परछावाँ भी नहीं पड़ना चाहिये था । आज उसे पता चला कि अगर किसी को कोई खुशी प्रभू नहीं बख्शी तो लोग भी उससे सब सुख छीनने के लिये आतुर रहते हैं ।
वहाँ से लौटने के बाद वह बुझी-बुझी से रहने लगी । चौधरी के सामने वह हँसने-बोलने की कोशिश तो करती थी लेकिन जब मन ही खुश न हो तो चेहरे पर प्राकृतिक मुस्कान कहाँ से आये ? चौधरी ने एक-दो बार पूछा तो उसने बात को टाल दिया । लेकिन, उस दिन जब चौधरी ने उसे बताया कि बेबे की बहु उम्मीद से थी तो उसने हल्के से सिर हिला दिया । चौधरी को थोड़ी हैरानी सी हुई ।
"ओय, तूने मुझे बताया ही नहीँ । चल बधाई दे आयें ।"
रानो कुछ नहीं बोली । बस सिर झुकाये बैठी रही । चौधरी ने उसके पास बैठ कर उसकी ठुड्डी को ऊपर किया तो उसकी आँखों में आँसु देख कर बोल उठा -
"ओय रानो मैं समझ गय तू क्यों उदास है । रब साढ़ी वी सुनेगा किसी दिन ।"
"नहीं जी, ऐ गल नहीं है ।"
रानो ने जब उस दिन का वाकया, जब वह बधाई देने गई थी, बयान किया तो चौधरी भी सोच में पड़ गया ।
"रानो, जब प्रभु ही हमारी नहीं सुनता तो हम क्या कर सकते हैं ।"
"क्यों जी, आप बेबे की बात क्यों नहीं मानते? दान-पुण करने से उसकी मुराद तो पूरी हो गई न।"
चौधरी भी सोच में पड़ गया । बोला -
"अच्छा एक काम करते हैं । हम भी साधुओं को भोज पर न्योता देते हैं । सब के चरण पकड़ कर आशीर्वाद लेंगें । शायद रब सुन ही ले ।"
रानो को भी यह बात भा गई । पैसे की कमी तो थी नहीं । आसपास के सारे गाँवों में मुनादी करा दी गई ।
"आज इस भोज को चलते लगभग एक महीना हो चला थ । साधु-सन्यासी आते । आशीर्वाद दे कर चले जाते । लकिन, मन की मुराद कैसे पूरी होगी, किसी ने नहीं बताया ।
एक दिन दोपहर के वक्त जब फटे-पुराने कपड़े पहने एक जटाधारी व्यक्ति ने पंडाल में पदार्पण किया तो चौधरी समझा कि वह कोई भिखारी होगा । चौधरी ने इशारे से उसे और साधुओं से अलग बैठने को कहा । इस पर वह व्यक्ति मंद-मंद मुस्काता हुआ कहने लगा -
"क्यों चौधरी, मैंने गेरूआ वस्त्र नहीं पहने इसलिये मैं साधु नहीं हुआ क्या ?"
"नहीं, नहीं । ऐसा नहीं है, " चौधरी कुछ झेंपता हुआ बोला ।
"फिर कैसा है ? क्या यहाँ जितने लोगों ने गेरूआ कपड़े पहने हैं, तुझसे धन का दान नहीं लेते?"
"वह तो मैं अपनी खुशी से देता हूँ ।"
"नहीँ ! तू भी स्वार्थवश देता है और वह लोभवश लेते हैं । हैं ना !"
चौधरी के पास कोई जवाब नहीं था ।
"चौधरी, इसका तुझे कोई लाभ नहीं होने वाला । अपने कर्मों का फल तो तुझे भुगतना ही है।"
"कर्मों का फल ? मैंने आज तक कोई पाप नहीं किया । किसी को कोई कष्ट नहीं पहुँचाया।"
"सोच कर बोल चौधरी"
चौधरी मौन था । उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था ।
"चौधरी, ये सब ढ़ोंगी सन्यासी हैं । तेरी कमजोरी से लाभ उठा कर चले जायेंगें । तुझे कुछ नहीं बता पायेंगें । मैं बताता हूँ तुझे । तेरी एक बहन थी । क्या हुआ था उसे ?"
"जी, मारी गई थी ।" उसकी बात सुन कर चौधरी को कुछ-कुछ विश्वास हो चला था ।
"कैसे?"
"जी, पाकिस्तान बनने पर दंगे-फसादों में ।"
"किसने मारा था ? आतताईयों ने ?"
"जी … जी …"
"जी, जी क्या करता है ? वह तो तेरे हाथों ही मरी थी न ?"
" जी! लेकिन अगर वह फसादियों के हाथ पड़ जाती तो उसकी इज्जत भी जाती और जान भी ।"
"मर तो वह फिर भी जाती । लेकिन साथ में तू भी मारा जाता । है न !"
चौधरी को याद आया । रात के अंधेरे में भागते-भागते वह और लाजो थक गये थे । शायद फसादियों को भनक लग चुकी थी कि लाजो भी उसके साथ थी । जब तक लाजो उसके साथ थी वह उसका पीछा नहीं छोड़ेंगें, यह वह समझ चुका था । पकड़ में आ गये तो लाजो की इज्जत भी जायेगी और उन दोनों की जान भी । लाजो की इज्जत के बारे में सोच कर उसके रोंगटे खड़े हो गये । मन ही मन उसने फैसला किया । भागते-भागते खेतों के बीच उसे एक कुआँ दिखाई पड़ा । लाजो के साथ वह कुएँ के अंदर की सोढ़ियों पर जा क बैठ गया और थोड़ी देर बाद मौका पा कर उसने लाजो को कुएँ में धक्का दे दिया । लाजो डूबने-उतरने लगी । उसका सिर पानी से बाहर आता था तो कुएँ की मुंडेर से एक पत्थर निकाल कर उसको मार देता थ । उसको डर था कि यदि उसकी आवाज सुन कर फसादियों को उनका पता लग गया तो उनकी खैर नहीं । थोड़ी देर में ही वह पानी के अंदर समा गई ।
फसादियों का शोर जब नजदीक आया तो वह ऐसे छुप कर बैठ गया कि ऊपर से झाँकने पर दिखाई न दे । आज भी लाजो को याद कर उसकी आँखों में आँसु आ जाते हैं ।
वह सब याद करके चौधरी की आँखें एक बार फिर से भर आईं । लेकिन, उस व्यक्ति की बात का उस के पास कोई जवाब नहीं था ।
"चौधरी, वह फसादी ही आतताई नहीं थे । आतताई तो तू भी था । वह अपने उन्माद में पागल थे, तू अपने स्वार्थ में अंधा था । जब तूने किसी का जीवन छीना है तो नये जीवन के अंकुर तेरे आँगन में क्यों कर फूटेंगें? कर्मों का फल तो भुगतना ही पड़ेगा न !"
चौधरी सिर झुकाये सोच रहा था, इस सब आडम्बर का क्या लाभ?

Friday, May 16, 2008

छँटते बादल(कहानी)

केहर सिंह का मन बल्लियों उछल रहा था । कहाँ वो और कहाँ प्रीतो ! अपनी किस्मत से उसे खुद ही रश्क होने लगा था ।जब एक काले-भुजंग से दिखने वाले पहलवान को, जिसे कोई रात को देखले तो भूत का अंदेशा हो जाये, ऐसी साँवली-सलोनी पत्नी मिल जाये जिसे देख कर चाँद भी शर्माता हो तो ऐसा होना लाज़मी ही था ।

सारे गाँव में धूम सी मच गई । केहरे की बहू इस कदर खूबसूरत होगी, कोई सोच भी नहीं सकता था । मुँह-दिखाई वालों का तो तांता ही लग गया ।प्रीतो को देखने आई औरतें जब टल ही नहींरही थीं तो कुढ़ कर केहर सिंह छत पर जा कर पड़ गया और तारे गिनने लगा । सोचा,जब भीड़ टलेगी तो अपनी प्रीतो को जी भर कर निहारेगा और सारी सदरें निकाल लेगा । परन्तु ब्याह की गहमा-गहमी से वह इतना थक गया कि कब उसकी आँख लग गई पता ही नहीं चला । और जब आँख खुली तो भोर हो चुकी थी । मन ही मन गाँव की औरतों को एक भद्दी सी गाली दे कर उठ बैठा ।

तड़के ही प्रीतो को उसके माँ-बाप के घर फेरे पर ले जाना था ।उसे भी आवाज लगा कर वह जल्दी-जल्दी तैयार होने लगा । सोचा, ससुराल में शायद कुछ मौका लगे और प्रीतो के भरपूर दीदार हो जायें ।

ससुराल पहुँचते-पहुँचते सूरज ढ़लने को हो आया था । केहर सिंह की बड़ी आवभगत हुई । जैसा होता ही है, साली ने भी खूब छकाया । इसी में काफी रात बीत गई । इस सारे समय में केहरसिंह के दिमाग पर प्रीतो का नशा ही छाया रहा । सोच रहा था पता नहीं कहाँ और कैसे सोने कोमिले । प्रीतो के करीब जाने का मौका मिलता है या नहीं ।पर उस पर मनों पहाड़ टूट पड़े जब उसने देखा कि प्रीतो की चारपाई उससे अलग ही बिछाई गई थी।
मरता क्या न करता । मन मसोस कर पड़ रहा । परन्तु एक बात की तसल्ली थी । दोनों की चारपाईयाँ सेहन में होने के कारण वह प्रीतो को लेटे-लेटे ही निहार सकता था, भले ही दूर से ।और प्रीतो को यूँ ही निहारते-निहारते कब आधी रात बीत गई, पता ही नहीं लगा । पर उसे नींद ही नहीं लग रही थी ।

अचानक उसे लगा जैसे कोई सपना देख रहा हो । प्रीतो हौले से अपनी चारपाई से उठी । चोर नज़रोंसे इधर-उधर देखा । केहर सिंह ने सोचा वह मौका लगा कर उसके पास आ रही थी । मन तो बल्लियों उछल रहा था, लेकिन डर भी लग रहा था । ससुराल वालों में से कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा । एक रात का सब्र भी नहीं था प्रीतो में । मन में निश्चय किया कि ऐसा कुछ उल्टा-पुल्टा नहीं होना चाहिये । सो, सोने का बहाना कर आँख मूँद कर पड़ गया ।
आँखें मूँदे-मूँदे उसने महसूस किया कि प्रीतो दबे पाँव उसके पास आई । थोड़ी देर खड़ी रही ।फिर न जाने क्या हुआ कि वापिस हो ली । केहर सिंह ने धीमे से आँख खोली तो हैरान रह गया । प्रीतो तो सेहन के किवाड़ खोल कर बाहर जा रही थी । केहर सिंह बड़े असमंजस में था । आधी रात गये प्रीतो घर से बाहर अकेली कहाँ जा रही थी, उसकी समझ से परे था । उत्सुकतावश वह भी धीमे से उठा और उसके पीछे हो लिया ।

प्रीतो अँधेरी रात में चोर नज़रों से इधर-उधर देखती हूई गाँव के बाहर की ओर चल दी । केहर सिंह हैरान-पशेमान था । प्रीतो को यह क्या हो गया था । कहीं भूत-प्रेत की छाया तो नहीं थी । या फिर नींद में चलने की आदत हो । परन्तु प्रीतो के चलने के अंदाज से ऐसा कुछ नहीं लग रहा था ।वह बड़ी सतर्कता से चली जा रही थी ।

गाँव के बाहर निकलते ही थोड़ी दूरी पर एक कुटिया थी, जिसमें इस समय भी दीपक जल रहा था ।कुटिया के बाहर पहुँच कर प्रीतो ने एक बार फिर दाँये-बाँये देखा और कुटिया में प्रवेश कर गई ।

केहर सिंह सावधानी बरतते हुए कुटिया के पीछे की ओर की खिड़की के पास पहुँचा तो वह अंदर का दृश्य देख कर दंग रह गया । प्रीतो आँखों में आँसु भरे सिर झुकाये फर्श पर बैठी हुई थी और गेरूएवस्त्र पहने एक खूबसूरत सा व्यक्ति लाल-लाल आँखें किये उसे कह रहा था -

"आने में इतनी देर क्यों कर दी ? मैंने तुझे ब्याह करने की इज़ाजत दी थी, न कि रंगरलियाँ मनाने की ।"

केहर सिंह को सारा माजरा समझ में आ गया । शायद यही वजह थी जो इतनी सुंदर लड़की को उसजैसे काले-भुजंग के साथ बांधा गया था । परन्तु फिर भी न जाने कैसे वह स्वयँ पर काबु किये साँस रोके सब कुछ देखता रहा ।

प्रीतो कुछ नहीं बोली । मुँह नीचे किये चुपचाप आँसु बहाती रही । थोड़ी देर बाद उस साधुवेशधारी का गुस्सा भी शांत हो गया । उसने प्रीतो को अपने पास खींच लिया । फिर उसके बाद केहर सिंह कीआँखों ने जो कुछ देखा उसे देख कर भी स्वयँ पर काबु रखने के लिये पहाड़ जैसा दिल चाहिये था ।ऐसा लगता था जैसे उसके पहाड़ जैसे शरीर में जैसे पहाड़ जैसा दिल ही था ।

जो सुहागरात प्रीतो को केहर सिंह के साथ मनानी चाहिये थी, वह उस साधुवेशधारी के साथ मना रहीथी । केहर सिंह की पकड़ कृपाण पर सख्त होती जा रही थी परन्तु दाँत भींचे अभी भी अपने पर काबू किये हुए था वह !

तूफान थम गया था । कुछ देर बाद साधुवेशधारी पानी पीने को बाहर निकला तो मानो केहर सिंह को मन की मुराद मिल गई हो ।मौका ताड़ कर उसने उसे पीछे से दबोच लिया और छाती में कृपाण उतारदी । वह चूँ तक भी नहीं कर पाया । बड़ी शाँति से कृपाण उसकी छाती से निकाल कर घड़े के पानी सेसाफ की, हाथ धोये औरे चुपचाप घर की ओर चल दिया ।

कुछ देर बाद प्रीतो बाहर निकली तो लाश देख कर सन्न रह गई । कुछ भी समझ न आने पर चुपचाप घर की ओर चल दी । केहर सिंह को जैसा छोड़ कर गई थी, वैसे ही आँखें बंद किये लेटे हुए पा कर वह चुपचाप बिस्तर पर जा कर पड़ गई । केहर सिंह अधखुली आँखों से सब देख रहा था । सब कुछजानते हुए भी उसने कुछ जाहिर नहीं होने दिया । प्रीतो की इस बदचलनी के बावजूद भी वह उसे खोना नहीं चाहता था । इसलिये मन ही मन निश्चय कर कि इस राज को राज ही रहने देगा, शाँत हो कर सो गया ।

उसके बाद तो उनकी जिन्दगी ऐसे कटने लगी जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो । प्रीतो के व्यव्हार से प्रीतो को कभी ऐसा नहीं लगा कि वह उसे पसन्द न करती हो । उसने कभी भी उससे विमुखता नहीं दिखाई ।केहर सिंह ने भी कभी अपने मर्द होने का अहँ नहीं दिखाया । कभी भी उसे कोई ताना नहीं दिया ।इसी तरह हँसते-खेलते उनकी ब्याहता जिंदगी के पाँच साल बीत गये । इन पाँच सालों में प्रीतो केहर सिंह के तीन बच्चों की माँ बन चुकी थी ।
फिर अचानक एक दिन उनकी जिंदगी में ऐसा सैलाब आया जिसके बारे में केहर सिंह ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था । बरसातों के दिन थे ।केहर सिंह अपने खेत पर काम कर रहा था । अचानक काले-काले बादल घिर और तूफान की शक्ल में धरती पर उतर आये । अपना काम वैसा का वैसा ही छोड़ कर केहरसिंह लगभग दौड़ता हुआ घर को लौट आया ।
कुछ देर बाद बरसात थम गई । मौसम बहुत सुहाना हो गया था । ऐसे मौसम में केहर सिंह ने पकौड़े खाने की फरमाईश की । प्रीतो ने भी बड़े प्यार से आलू-प्याज के गर्मा-गर्म पकौड़े बना कर खिलाये ।

बरसात तो थम चुकी थी । परन्तु एक तो काले बादल, दूसरे शाम का झुरमुट । सो, धरती पर अन्धेरा जल्दी उतर आया था । पकौड़े खा कर केहर सिंह सुस्ती के आलम में पड़ा था । पेशाब का जोर पड़ा तो याद आया कि जल्दी में जूतियाँ तो वह खेत की मुँडेर पर ही छोड़ आया था । सुस्ती की वजह से इतना भी मन नहीं किया कि एक कदम भी चले । सो, प्रीतो को खेत से जूतियाँ लाने की गुहार लगा बैठा । प्रीतो दराँती से साग काट रही थी । बोली -

"मेरे बस का नहीं है इस अँधेरे में खेतों को जाना ।"

इतनी सी बात पर न जाने क्यों केहर सिंह का सोया हुआ अहँ पल भर को जाग गया और कहर बरपा गया ।तल्ख़ी से बोला -

"रात बारह बजे तू अकेली गाँव के बाहर जा सकती है, अब नहीँ ।"

इतना सुनना था कि साग काटते-काटते प्रीतो के हाथ रुक गये। आज केहर सिंह ने प्रीतो का दूसरा ही रुप देखा ।साग एक और फेंका और दराँती हाथ में लिये शेरनी की तरह बिफरी -

"तो वह तू था ?"

केहर सिंह को पल भर में ही अपनी भूल का एहसास हो गया । जो राज उसने सालों-साल अपने सीने में छुपाए रखा था, वह उसकी ज़रा सी चूक से रूपोश हो गया था।

उसके बाद तो जैसे प्रीतो को होश ही नहीं रहा । उसने दराँती से केहर सिंह के शरीर पर पागलों की तरह न जाने कितने ही वार किये होंगें । केहर सिंह चुपचाप वार सहता रहा । एक शब्द भी नहीं निकला उसके मुँह से । लेकिन पहाड़ जैसा शरीर भी जब और वार सहन नहीं कर पाया तो बेहोश हो कर गिर गया ।

उसे मरा जान प्रीतो ने दराँती एक और फेंकी और पड़ोस से शंकर को बुला लाई । उसके कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा ।परन्तु हालात की नजाकत को समझते हुए घायल केहर सिंह को जल्दी से टरेक्टर में डाल कर हस्पताल ले गया ।

सारे गाँव वाले दंग थे कि अचानक यह क्या हो गया । इतने प्रेम से रहते थे प्रीतो और केहर सिंह । ऐसा क्याहुआ था कि प्रीतो ने केहर सिंह को लगभग जान से ही मार डाला था ।
केहर सिंह ऐसी शख्सियत का मालिक नहीं था कि कोई और औरत उसकी ओर आकर्षित होती । और फिर, केहर सिंह भी एक नेक इन्सान था जो किसीकी और आँख उठा कर भी नहीं देखता था ।

प्रीतो मन ही मन जेल जाने की तैयारी कर चुकी थी । उसे आशा नहीं थी कि इतने वार खाने के बाद केहर सिंहबच पायेगा । गाँव वाले उसके खिलाफ हो ही चुके थे । परन्तु उसके मन को एक झटका सा लगा जब उसे पताचला कि केहर सिंह ने होश में आने के बाद पुलिस को अपने बयान में प्रीतो को निर्दोष बताया था । उसके बयानके अनुसार कुछ लोग उसके घर में लूट-पाट के इरादे से घुस आये थे । विरोध करने पर उसी की दराँती से घायल करके भाग गये । कौन लोग थे, अँधेरे की वजह से पहचान नहीं पाया ।

केहर सिंह के घाव भरने में तीन महीनों से भी ज्यादा का समय लग गया । गाँव वालों के लिये अजूबा ही था जोइतने घावों को भी केहर सिंह झेल गया था । कोई और होता तो कब का दम तोड़ चुका होता ।

इन तीन महीनों में प्रीतो का मन कशमकश में ही रहा । वह लाख चाहते हुए भी केहर सिंह को मिलने नहीं जासकी । कैसे मुँह दिखाती । एक तो उसका राज केहर सिंह पर जाहिर हो चुका था, दूसरे उसने उस पर घातकवार भी किया था ।मन ही मन पश्चाताप करते हुए उसी घर में बच्चों के साथ रहती रही । न तो गाँव वालों नेऔर न ही मायके वालों से उससे कोई नाता ही रखा ।

आज केहर सिंह को हस्पताल से छुट्टी मिलनी थी । उसको उम्मीद नहीं थी कि प्रीतो अब उससे कोई नाता रखेगी ।परन्तु उसे अपनी आँखों पर यकायक विश्वास नहीं आया जब उसने प्रीतो को अपने बिस्तर के करीब खड़ा पाया ।वह एकटक उसे ही निहारे जा रही थी ।
केहर सिंह ने धीरे से तकिये के नीचे से कृपाण निकाली और उसकी ओर बढ़ाते हुए बोला -

"प्रीतो, कोई अरमान बाकी रह गया हो तो अभी भी निकाल ले ।"

बस, प्रीतो की आँखों से आँसुओं की गंगा बह निकली । केहर सिंह की छाती से लग कर वह आधा घंटा तक बिलख-बिलख कर रोती रही । इन आँसुओं की बरसात से उनके जीवन पर छाये काले बादल छँट गये । तूफान शाँत हुआ तो बड़े प्यार से केहर सिंह को घर लाई ।उनका प्यार अब भी वैसा ही था । न केहर सिंह ने कभी उन बातों का जिक्र किया, न प्रीतो ने । गाँव वाले भी हैरान थे !



Sunday, April 6, 2008

भिखारी कौन?

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


यह अक्सर ही होता था कि सुबह दुकान पर जाते समय मुझे आई0टी0ओ0 ब्रिज पार करने के बाद रिंग रोड़ पर मुड़ने से पहले रेड लाईट पर रूकना पड़ता था । यह लगभग नित्य का क्रम था कि एक चौदह-पंद्रह साल का लड़का मेरी कार साफ करने का उपक्रम करता था । कभी कुछ मांगता नहीं था । मुझे यह भीख मांगने के तरीकों में से एक लगता था । लेकिन मैंने उसे कभी कुछ नहीं दिया । मुझे शुरू से ही भिखारियों से चिढ़ रही है । इसलिये मैं उसे कुछ न दे कर गर्व महसूस करता था । फिर भी वह नियम से मेरा स्कूटर साफ करता था । मैं एक स्व-निर्मित व्यक्ति हूँ । पाकिस्तान छोड़ भारत आना पड़ा था । यह मेरा सौभाग्य ही था कि इतनी अव्यवस्था होने के बावजूद हमारे परिवार का कोई भी सदस्य कहीं खोया नहीं था । सब साथ ही थे । पहले कलकत्ता गये । वहाँ पर व्यवस्थित नहीं हो पाये तो दिल्ली चले आये । बचपन अभावों में बीता था । जब पाकिस्तान बना तो मैं लगभग पांच बरस का था । मार-काट की वारदातों की धुंधली यादें ज़हन में थीं । माँ बताती है कि मेरे मामाजी उन दिनों लाहौर में रहा करते थे । बंटवारे के समय अपने घर की छत पर हिम्मत करके चले तो गये, परन्तु बाल-बाल बचे । मकान कुछ इस तरह से बने थे कि खिड़की खोल कर कुछ देखना खतरे से खाली नहीं था । केवल हमारा ही मुहल्ला हिन्दुओं का था, जो चारों तरफ से मुसलमान मुहल्लों से घिरा हुआ था । लगता तो यूँ था जैसे माहौल शांत हो चला था, परन्तु फिर भी मन में खटका था । सो, मामाजी जवानी के जोश में, परन्तु एहतियात बरतते हुए, छत पर पहुंचे । जैसे ही उन्होने अपना सिर छत की मुंडेर के ऊपर करना चाहा, एक गोली उनके सिर के ऊपर से सनसनाती हुई निकल गई । यदि उनका सिर जरा भी ऊपर होता हो आज मामा जी हमारे बीच नहीं होते ।खैर, राम-राम करते दिन-रात निकल रहे थे । फिर एक दिन पता चला कि पाकिस्तानी फौजें फंसे हुए हिन्दुओं को निकालने के लिये आ रही हैं । सबके मन में शुबहा तो था ही । लेकिन क्या करते ? एक तरफ कुआँ तो दूसरी खाई । रहते हैं तो भी मरने का अंदेशा तो बना ही हुआ था । सो, घर के बड़ों ने फैसला लिया कि इन पाकिस्तानी फौजों पर भरोसा करना ही हालात के हिसाब से ठीक था । तो, बचपन में ऐसे महौल का सामना करने पर किसी के मन पर क्या असर होना चाहिये, मै कह नहीं सकता । लेकिन इतना अवश्य है कि मुझ पर इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा था । दिल्ली पहुंच कर शुरू-शरू में शरणार्थी होस्टल में रहे । शायद किचनल होस्टल कहते थे उसे । पिता पढ़े-लिखे नहीं थे । लाहौर में अच्छा व्यापार था । सो, दिन बहुत अच्छे कट रहे थे । मैं केवल पांच साल का था । यहाँ आ कर कैसे उन्होने हमारा पेट पाला था, यह वो ही जानते थे । रेलवे स्टेशन पर नाड़े बेचे । मूंगफली की रेहड़ी लगाई । चांदनी चौक में फुव्वारे पर पटरी लगा कर सामान बेचा । सुबह का खाना नसीब होता था तो रात के खाने का भरोसा नहीं था । पढ़े-लिखे तो थे नहीं । मामाजी दसवीं पास थे और लाहौर में नौकरी करते थे । परन्तु उनका भी पता नहीं लग रहा था । दो-तीन साल बाद पता लगा कि सरकार विस्थापितों को क्लेम के रूप में मकान-पैसा इत्यादि दे रही है । मैं अब आठ साल का हो चला था । परन्तु मुझमें तो इतनी समझ नहीं थी कि क्लेम का फार्म भर सकुँ । किसी भले आदमी की सहायता से क्लेम फार्म भरे गये । मकान मिला, सदर में दुकान मिली और कुछ पैसा । पिताजी ने सदर में चाय की दुकान खोली तो कुछ गुजर-बसर होने लगी । मैं भी स्कूल जाने लगा । खाली समय में निरन्तर पिता का हाथ बंटाता था । जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, मुझमे पढ़ाई और परिपक्व होने के कारण दुनियादारी की समझ आती चली गई । धीरे-धीरे मुझे यूँ लगने लगा जैसे मुझमें व्यापार करने के प्रकृति-प्रदत्त गुण हैं । यह समझ आते ही मैंने पिताजी से प्रार्थना की कि मुझे अपने ढ़ंग से व्यापार करने दिया जाये । एक तो उनकी आयु, दूसरे संघर्षों की लम्बी दास्तान, उन्होने सहर्ष ही मुझे इज़ाजत दे दी । मैंने तत्काल ही सदर की दुकान बेची और लाजपत राय मार्किट में दुकान खरीद कर नये सिरे से व्यापार शुरू कर दिया । जल्द ही मैंने अपनी सूझबूझ से व्यापार इतना बढ़ा लिया कि प्रतिदिन हजारों का लेन-देन होने लगा । उस दिन मैं जरा जल्दी में था और एक पार्टी की दस हजार की पेमेंट करनी थी । परन्तु सर्दियों की वजह से कार स्टार्ट होने का नाम ही नहीं ले रही थी । सो, एक भद्दी सी गाली देकर स्कूटर ही निकाला । इस दिन भी संयोग से पुल पार करके लाल बत्ती ही मिली और वही लड़का कपड़ा लेकर मेरा स्कूटर साफ करने लगा । मैंने मन ही मन कहा - "साले स्कूटर साफ करने की वो भीख दूंगा जो आज तक कार साफ करने की नहीं दी ।" इतने में ही हरी बत्ती हो गई और मैंने झटके से स्कूटर आगे बढ़ा दिया । बेधयानी में देखा ही नहीं कि आगे गढ़ा था । इससे पहले कि मैं संभल पाता, स्कूटर गढ़े की वजह से उछला । परन्तु मैंने फिर भी संभाल लिया । स्कूटर थोड़ा आगे बढ़ा तो लगा कि पीछे से कोई आवाज दे रहा था - " साहब जी, साहब जी " । मैं मन ही मन प्रसन्न हो रहा था कि चलो आज तो इसके सब्र का बांध टूटा । आज तो जरूर ये पैसे मांग ही रहा होगा । सुनी, अनसुनी करके मैंने स्कूटर तेज कर दिया । पर पार्टी को पेमेंट करने के लिये जैसे ही हाथ जेब में डाला तो सन्न रह गया । पर्स जेब में नहीं था । उस समय दस हजार की बहुत कीमत हुआ करती थी । परेशान तो था लेकिन क्या करता । कहाँ ढूंढता ? अब तक तो किसी के हाथ भी लग चुका होगा । बुरे समय में सब तरह के ख्याल आते हैं । एक ख्याल ये भी आया कि कहीं ये उस गाड़ी साफ करने वाले की बद्-दुआ का फल तो नहीं था । बुझा-बुझा सा मन ले कर सारा दिन काम करता रहा । घर पर भी मूढ़ कुछ यूँ ही रहा । अगले दिन चलने से पहले सोचा कि आज उस लड़के को अवश्य कुछ दे दूँगा । कार जैसे ही लाल बत्ती पर रूकी, वह लड़का जैसे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था । "सर, कल मैं आपको आवाज ही लगाता रहा । आपका ये पर्स ।" मुझे काटो तो खून नहीं । परन्तु मन में शंका थी । क्या पता पैसे पूरे भी हैं या नहीं । इससे पहले कि मैं कोई प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाता, वह बोला - "गिन लीजिए सर, मैंने तो गिने भी नहीं ।" इतने में हरी बत्ती हो गई । मैंने झटके से उसे कार में बिठा लिया । पूछा - "कितने पढ़े-लिखे हो ?" "आठवीं पास हूँ, सर ।" "फिर कोई काम क्यों नहीं करते ?" "यह भी तो काम ही है । मैं पैसे जोड़ कर कोई छोटी-मोटी रेहड़ी कर लूंगा ।" इतने में हम दुकान पर पहुंच गये । मैंने उसके लिये चाय मंगाई । पैसे गिने तो पूरे दस हजार थे । मैंने पूछा - "तुम्हे मालूम है ये कितने पैसे हैं ।" "नहीं सर", वह बोला । "पूरे दस हजार हैं । अच्छा यह बताओ, तुम ये सारे पैसे रख भी तो सकते थे ।" "नहीं सर । मैं कोई चोर-उचक्का नहीं ।" "अच्छा, रेहड़ी के लिये लगभग कितने पैसे लगेगें ?" "यही कोई चार-पाँच सौ ।" "तो फिर ये रखो पाँच सौ रूपये । अपने लिये रेहड़ी खरीद लेना ।" "नहीं सर, मैं भीख नहीं लेता ।" मैं आवाक रह गया । यह मेरे व्यक्तित्व का प्रतिरूप ही तो था । केवल समय का फेर था । "अच्छा," मैंने सोचते हुए कहा -"मेरे यहाँ काम करोगे? तुम्हे लगे कि अपना काम शुरू कर सकते हो तो छोड़ देना ।" मैं उसके इमानदार होने का भी नाजायज़ फायदा नहीं उठाना चाहता था । वह सहर्ष ही मान गया । उसने लगभग दो वर्ष तक मेरे पास काम किया । मैं उसकी अधिक से अधिक मदद करना चाहता था । लेकिन वह विनम्रता के साथ अस्वीकार कर देता था । जिस हिसाब से काम करता था, उसी हिसाब से पैसे लेता था । आज वह अपना अलग से व्यापार करता है । मुझी से सामान लेकर वह रिटेल में बेचता है । परन्तु मैं जब भी उसके बारे में सोचता हूँ तो तय नहीं कर पाता कि कौन भिखारी था - वह या मैं ?