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Thursday, October 2, 2008

"आतताई"(कहानी)

आज चौधरी के पास सब कुछ था । जमीन, जायदाद और रुतबा । न जाने कितने बरस उसने संघर्ष किया था इस मुकाम पर पहुँचने के लिये । उसकी मेहनत आखिरकार रंग लाई और इसी बरस वह गाँव का सरपँच भी चुन लिया गया था । वो भी एक प्रतिष्ठित प्रतिद्वंदी को हरा कर । परन्तु इतना सब कुछ होने के बाद भी उसकी आँखों में वो खुशी नहीं थी जो होनी चाहिये थी । इसका सबब सभी जानते थे, लेकिन मुँह से न तो चौधरी कुछ कहता था और न ही इस बारे में किसी को कुछ कहने की इज़ाजत थी । औलाद की कमी हालाँकि उसे खूब खटकती थी लेकिन वह अपनी उदासी को रानो के ऊपर जाहिर नहीं होने देता था । वह जानता था कि यदि उसने भूले से भी कह दिया तो रानो के दिल पर क्या गुजरे गी । यह बात उसके दुख को चौगुना कर देगी, जो उसे कत्तई बर्दाशत नहीं था - रानो से प्यार जो इतना करता था वो ।
जब उसका दुनिया में नहीं रह गया था तो रानो ही उसका सहारा थी । हिन्दुस्तान का बंटवारा हुआ तो उसे वहाँ से सब कुछ छोड़-छाड़ कर भागना पड़ा था । माँ-बाप तो आतताईयों के शिकार हो गये । उनके गाँव में जो भी आठ-दस हिन्दुओं के घर थे, उन्हे घेर कर रात को आग लगा दी गई थी । माँ-बाप तो बूढ़ी हडिडयों के कारण निकल नहीं पाये, वह अपनी लाडली बहन लाजो को किसी तरह ले कर भाग निकला । आतताईयों को जब पता लगा तो उन्होने दूर तक उनका पीछा किया । रास्ते में जिस तरह उसे अपनी बहन को खोना पड़ा, सोच कर आज भी उसकी रूह काँप उठती है । बस दिल को तसल्ली दे लेता था कि ऊपर वाले को ग़र यूँ ही मंजूर था तो यूँ ही सही । कई बात उसके दिल में टीस सी उठती थी कि यदि आज लाजो होती तो उसके बच्चों से ही मन की हसरत पूरी कर लेता । परन्तु, न जाने उसे कौन सी सजा मिल रही थी । माँ-बाप खोये, बहन खोई और अब आगे कोई वारिस भी नही है । कौन देखभाल करेगा उसकी जायदाद की। यूँ ही सोचते-सोचते उसकी आँखें भर आया करती थीं ।
"पुत्तर ! पिछले जन्मा दे करम वी होंदे ने । कोई दान-पुण कर । रब सुनेगा ।" बेबे ने कई बार उसे टोका थ । लेकिन वह इन चोजों को नही मानता था । वह स्वयँ को एक कर्मयोगी मानता था । आज तक उसने जो कुछ भी पाया था, वह अपनी मेहनत और लगन के बल पर था । हाँ, वह नास्तिक नहीं था । प्रभु में पूरी आस्था रखता था और उसे भरोसा था कि वह उसके मन की मुराद अवश्य पूरी करेगा ।
शादी के पन्द्रह साल गुजर चुके थे । रानो ने भी कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया था कि औलाद की कमी उसको खलती थी । गाँव के बच्चों को लाड-प्यार करके अपना मन बहला लेती थी । लगता थ जैसे उसने इसे अपनी नियति मान कर परिस्थितियों से समझौता कर लिया थ । लेकिन, मन का भरोसा नहीं, कब धीरज खो बैठे या मचल उठे ।
उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ कि बात रानो के दिल को चीर सी गई । यूँ बेबे की बहु को आये लगभग तीन साल हो चुके थे, परन्तु उसके पाँव अभी हाल ही में भारी हुए थे । जैसी सलाह वह चौधरी को देती थी, उस पर खुद भी अमल करती थी । जब साल गुजरते-गुजरते उसकी बहु उम्मीद से न हुई थी तो उसने साधु-सन्यासियों के यहाँ चक्कर लगाने शुरू कर दिय और उनके कहे अनुसार तरह-तरह के दान-पुण्य के उपाय करने लगी । अब इसी दान-पुण्य का फल था या प्रभु की कृपा थी कि शादी को तीन साल होते-होते उसकी बहु के पाँव भारी हो गये ।
रानो को पता चला तो वह भागी-भागी वहाँ पहुँची और लगी उलाहना देने -
"बधाई हो बेबे ! इतनी बड़ी खुशखबरी और तूने हमें बताई ही नहीं ।"
बेबे ने अपनी बहु को, जो आँगन में बैठी साग काट रही थी, को अन्दर जाने का इशारा किया और थोड़ी रुखाई से बोली -
"क्या बताऊँ रानो ! स्वामी जी ने कहा था कि बड़ी मुश्किल से प्रभु ने मुराद पूरी की है । इसलिये इस पर कोई गल्त परछावाँ नहीं पड़ना चाहिये ।"
रानो समझ गई वह क्या कह रही थी । वह खुद जो बेऔलाद थी, इसलिये वहाँ उसका परछावाँ भी नहीं पड़ना चाहिये था । आज उसे पता चला कि अगर किसी को कोई खुशी प्रभू नहीं बख्शी तो लोग भी उससे सब सुख छीनने के लिये आतुर रहते हैं ।
वहाँ से लौटने के बाद वह बुझी-बुझी से रहने लगी । चौधरी के सामने वह हँसने-बोलने की कोशिश तो करती थी लेकिन जब मन ही खुश न हो तो चेहरे पर प्राकृतिक मुस्कान कहाँ से आये ? चौधरी ने एक-दो बार पूछा तो उसने बात को टाल दिया । लेकिन, उस दिन जब चौधरी ने उसे बताया कि बेबे की बहु उम्मीद से थी तो उसने हल्के से सिर हिला दिया । चौधरी को थोड़ी हैरानी सी हुई ।
"ओय, तूने मुझे बताया ही नहीँ । चल बधाई दे आयें ।"
रानो कुछ नहीं बोली । बस सिर झुकाये बैठी रही । चौधरी ने उसके पास बैठ कर उसकी ठुड्डी को ऊपर किया तो उसकी आँखों में आँसु देख कर बोल उठा -
"ओय रानो मैं समझ गय तू क्यों उदास है । रब साढ़ी वी सुनेगा किसी दिन ।"
"नहीं जी, ऐ गल नहीं है ।"
रानो ने जब उस दिन का वाकया, जब वह बधाई देने गई थी, बयान किया तो चौधरी भी सोच में पड़ गया ।
"रानो, जब प्रभु ही हमारी नहीं सुनता तो हम क्या कर सकते हैं ।"
"क्यों जी, आप बेबे की बात क्यों नहीं मानते? दान-पुण करने से उसकी मुराद तो पूरी हो गई न।"
चौधरी भी सोच में पड़ गया । बोला -
"अच्छा एक काम करते हैं । हम भी साधुओं को भोज पर न्योता देते हैं । सब के चरण पकड़ कर आशीर्वाद लेंगें । शायद रब सुन ही ले ।"
रानो को भी यह बात भा गई । पैसे की कमी तो थी नहीं । आसपास के सारे गाँवों में मुनादी करा दी गई ।
"आज इस भोज को चलते लगभग एक महीना हो चला थ । साधु-सन्यासी आते । आशीर्वाद दे कर चले जाते । लकिन, मन की मुराद कैसे पूरी होगी, किसी ने नहीं बताया ।
एक दिन दोपहर के वक्त जब फटे-पुराने कपड़े पहने एक जटाधारी व्यक्ति ने पंडाल में पदार्पण किया तो चौधरी समझा कि वह कोई भिखारी होगा । चौधरी ने इशारे से उसे और साधुओं से अलग बैठने को कहा । इस पर वह व्यक्ति मंद-मंद मुस्काता हुआ कहने लगा -
"क्यों चौधरी, मैंने गेरूआ वस्त्र नहीं पहने इसलिये मैं साधु नहीं हुआ क्या ?"
"नहीं, नहीं । ऐसा नहीं है, " चौधरी कुछ झेंपता हुआ बोला ।
"फिर कैसा है ? क्या यहाँ जितने लोगों ने गेरूआ कपड़े पहने हैं, तुझसे धन का दान नहीं लेते?"
"वह तो मैं अपनी खुशी से देता हूँ ।"
"नहीँ ! तू भी स्वार्थवश देता है और वह लोभवश लेते हैं । हैं ना !"
चौधरी के पास कोई जवाब नहीं था ।
"चौधरी, इसका तुझे कोई लाभ नहीं होने वाला । अपने कर्मों का फल तो तुझे भुगतना ही है।"
"कर्मों का फल ? मैंने आज तक कोई पाप नहीं किया । किसी को कोई कष्ट नहीं पहुँचाया।"
"सोच कर बोल चौधरी"
चौधरी मौन था । उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था ।
"चौधरी, ये सब ढ़ोंगी सन्यासी हैं । तेरी कमजोरी से लाभ उठा कर चले जायेंगें । तुझे कुछ नहीं बता पायेंगें । मैं बताता हूँ तुझे । तेरी एक बहन थी । क्या हुआ था उसे ?"
"जी, मारी गई थी ।" उसकी बात सुन कर चौधरी को कुछ-कुछ विश्वास हो चला था ।
"कैसे?"
"जी, पाकिस्तान बनने पर दंगे-फसादों में ।"
"किसने मारा था ? आतताईयों ने ?"
"जी … जी …"
"जी, जी क्या करता है ? वह तो तेरे हाथों ही मरी थी न ?"
" जी! लेकिन अगर वह फसादियों के हाथ पड़ जाती तो उसकी इज्जत भी जाती और जान भी ।"
"मर तो वह फिर भी जाती । लेकिन साथ में तू भी मारा जाता । है न !"
चौधरी को याद आया । रात के अंधेरे में भागते-भागते वह और लाजो थक गये थे । शायद फसादियों को भनक लग चुकी थी कि लाजो भी उसके साथ थी । जब तक लाजो उसके साथ थी वह उसका पीछा नहीं छोड़ेंगें, यह वह समझ चुका था । पकड़ में आ गये तो लाजो की इज्जत भी जायेगी और उन दोनों की जान भी । लाजो की इज्जत के बारे में सोच कर उसके रोंगटे खड़े हो गये । मन ही मन उसने फैसला किया । भागते-भागते खेतों के बीच उसे एक कुआँ दिखाई पड़ा । लाजो के साथ वह कुएँ के अंदर की सोढ़ियों पर जा क बैठ गया और थोड़ी देर बाद मौका पा कर उसने लाजो को कुएँ में धक्का दे दिया । लाजो डूबने-उतरने लगी । उसका सिर पानी से बाहर आता था तो कुएँ की मुंडेर से एक पत्थर निकाल कर उसको मार देता थ । उसको डर था कि यदि उसकी आवाज सुन कर फसादियों को उनका पता लग गया तो उनकी खैर नहीं । थोड़ी देर में ही वह पानी के अंदर समा गई ।
फसादियों का शोर जब नजदीक आया तो वह ऐसे छुप कर बैठ गया कि ऊपर से झाँकने पर दिखाई न दे । आज भी लाजो को याद कर उसकी आँखों में आँसु आ जाते हैं ।
वह सब याद करके चौधरी की आँखें एक बार फिर से भर आईं । लेकिन, उस व्यक्ति की बात का उस के पास कोई जवाब नहीं था ।
"चौधरी, वह फसादी ही आतताई नहीं थे । आतताई तो तू भी था । वह अपने उन्माद में पागल थे, तू अपने स्वार्थ में अंधा था । जब तूने किसी का जीवन छीना है तो नये जीवन के अंकुर तेरे आँगन में क्यों कर फूटेंगें? कर्मों का फल तो भुगतना ही पड़ेगा न !"
चौधरी सिर झुकाये सोच रहा था, इस सब आडम्बर का क्या लाभ?